Saturday, September 11, 2021

महिला सिविल डिफेंस कर्मी हत्याकांड : कैंडल मार्च निकालकर CBI जांच की मांग की


राजधानी के संगम विहार में सिविल डिफेंस कर्मचारी के साथ हुई हत्या का मामला तूल पकड़ता जा रहा है. इसको लेकर छतरपुर इलाके में सैकड़ों की तादात में लोगों ने कैंडल मार्च निकाला और मृतका के इंसाफ के लिये नारेबाजी की. लोगों का कहना है कि देश में कहीं भी बेटियां सुरक्षित नहीं हैं. देश की राजधानी में इस प्रकार की घटनाएं सामने आ रही हैं, फिर भी प्रशासन की तरफ से कोई कदम नहीं उठाया जा रहा है. इन घटनाओं पर रोक नहीं लग रही है. लोगों का कहना है कि अभी तक इस मामले में पुलिस की तरफ से कोई भी कदम नहीं उठाया गया. दिल्ली सरकार की तरफ से अभी तक कोई भी नुमाइंदा इस मामले पर एक शब्द भी नहीं बोला है. लोगों की यही मांग है कि इस मामले में सीबीआई जांच कराई जाए. सामाजिक कार्यकर्ता सलीम खान ने बताया कि देश की बेटी को इंसाफ नहीं मिल रहा है. देश की बेटियों के साथ बर्बरता हो रही है, लेकिन न सरकार कुछ कर रही है और न ही कोई ठोस कदम उठाये जा रहे हैं. यही मांग है कि इस मामले पर कोर्ट संज्ञान ले. महिलाओं के साथ अत्याचार हो रहा है. बहन-बेटियों की निर्मम तरीके से हत्या की जा रही है!

Wednesday, September 8, 2021

‘निर्भया, आसिफ़ा, गुड़िया और राबिया, नाम अलग अलग मगर कहानी एक है’ (महिला दिवस मानाने, क़ानून बना देने और नारे लगाने से औरत सुरक्षित नहीं हो जाती)

कलीमुल हफ़ीज़ : इतिहास के थोड़े से समय को छोड़ कर नारी हमेशा पीड़ित या मज़लूम ही रही है। धर्म के नाम पर भी महिलाओं के अधिकारों पर डाका डाला गया है। दीन ए इस्लाम ने औरतों को जो अधिकार दिए थे और इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद स. अ. व. ने जो ऊँचा स्थान एवं सम्मान दिया था, मुसलमानों ने भी उन तालीमात पर पूरी तरह अमल न कर के अपनी भी रुसवाई का सामान किया और दीन ए इस्लाम की बदनामी का कारण भी बने।

आसमानी दीन के नाम पर बाक़ी सभी धर्म जो आज मौजूद हैं, उन में तो नारी को मानवीय स्तर से भी नीचे गिरा दिया गया है। औरत पर अत्याचार, ज़ुल्म व सितम धर्मों की बदली हुई और अमानवीय अर्थात ग़ैर इंसानी तालीमात का नतीजा भी है। परन्तु आज के लोकतांत्रिक समाज में, जहाँ ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक और एक चपरासी से लेकर सर्वोच्च पदों तक औरत की पहुँच हो चुकी हो। जिस राजतंत्र और सिस्टम का दावा हो कि उसने महिलाओं को बराबरी का अधिकार देकर मर्दों के साथ ला खड़ा किया है। यदि उसी सिस्टम के भीतर औरतों पर अत्याचार और ज़ुल्म होता है और उसके साथ अमानवीय व्यवहार होता हो तो आश्चर्य होना लाज़मी है।
ज़माना जिस क़दर तरक़्क़ी कर रहा है, उसी रफ़्तार से अपराध भी बढ़ता जा रहा है। इस मामले में हमारा महान भारत कुछ ज़्यादा ही तरक़्क़ीयाफ़्ता है। "बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ" और ''मेरा ईमान नारी सम्मान'' जैसे मनमोहक नारों के बाद तो महिलाओं का बलात्कार और उन के साथ दुर्व्यवहार कई गुणा अधिक हो गया है। महिलाओं का अपहरण, बलात्कार और उसके बाद उनकी निर्मम हत्या, यह सारी घटनाएं आपको सभी केसों में देखने को मिलेंगी। आप हर मामले में यह भी पाएंगे कि पीड़िता का संबंध दलित, पिछड़ा समाज या मुस्लिम तब्क़े से होगा। जब कि उत्पीड़क यानी ज़ालिम उच्च जाति का होगा और सत्ताधारी पार्टी से उसके रिश्ते होंगे।
महिलाओं के उत्पीड़न और उन पर होने वाले ज़ुल्म व सितम के अनेक कारण हैं। जिन पर हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए। मेरे ख़याल से सब से पहला कारण जैसा कि मैंने अपने दूसरे वाक्य में ही इशारा किया, मज़हब के नाम पर जो विचार समाज में पाए जाते हैं वह ध्यान देने योग्य हैं। जिस धर्म में स्त्रियों की गिनती पशुओं के बाद आती हो, जिसे ख़रीदा और बेचा जा सकता हो, या जिसे विरासत में बांटा जा सकता हो, जहाँ उन्हें गुनाहों की देवी और पाप की जननी कहा जाता हो, जहां उसकी शक्ल देख लेने भर से नेकियाँ बरबाद हो जाती हों, जहाँ जन्नत से निकलवाने का आरोप औरतों पर लगाया जाता हो। उस धर्म और कल्चर के मानने वाले मर्दों से महिलाओं के सम्मान की अपेक्षा करना फ़िज़ूल है। और दुर्भाग्य से यदि उस महिला का ताल्लुक़ मुस्लिम, दलित या शूद्र वर्ग से हो तब तो वह हर तरह से हलाल है। रेप की शिकार औरतों की 80-90 प्रतिशत तादाद उसी वर्ग और समाज से है।
भारत जैसे धर्म प्रधान देश में किसी भी धर्म की यह शिक्षा अपना असर ज़रूर दिखाती है। मुस्लिम लड़कियों के साथ ये बर्बरता में शामिल अधिकतर स्थानों पर ऊँची जाति के लोग ही होते हैं, बहुत ही कम घटनाएं ऐसी हैं जहां कुकर्मियों का रिश्ता मुसलमानों से है। लेकिन मुसलमानों के ताल्लुक़ से यह बात संतोषजनक है कि उनका दीन महिलाओं के शोषण का समर्थन नहीं करता।
औरतों पर अत्याचार का दूसरा बड़ा कारण देश में क़ानून नाफ़िज़ करने और न्याय करने वाली संस्थाओं में करप्शन और घूसख़ोरी की कुप्रथा है। हम सब यह बात भलीभांति जानते हैं कि करप्शन के मामले में पुलिस कम नहीं है। यहां बड़े से बड़ा अपराधी पैसे देकर छूट जाता है। यहां थोड़ी सी लालच में निर्दोष व्यक्ति को पुलिस द्वारा जेल की काल कोठरी में डाल दिया जाता है, यहाँ सत्ताधारी पार्टी के नेताओं के दबाव में पुलिस अपनी ड्यूटी से भी मुंह मोड़ लेती है। जब किसी देश में क़ानून के रक्षक ही अपना फ़र्ज़ न निभाएँ तो उस देश में इस प्रकार की घटनाओं को कैसे रोका जा सकता है।
आप जिस केस को चाहें उठाकर देख लें। सब से पहले तो पुलिस FIR लिखने को ही तैयार नहीं होगी और यदि मजबूर हो कर लिखेगी भी तो अपराधी के लिए बच निकलने का रास्ता छोड़ पीड़ित को ही मुक़दमे में फ़ांस लेगी। उन्हें डराएगी धमकाएगी और यदि किसी तरह मामला अदालत तक पहुंच गया तो गवाहों का न मिलना तो निश्चित है। न्याय प्रणाली की जटिलताएं मुक़दमों के बरवक़्त फैसले की राह में रुकावट बन जाती हैं। इंसाफ़ मिलने वाली देरी अपराधियों के हौसले बढ़ाती है।
हर किसी का मुक़द्दर निर्भया जैसा नहीं होता कि सारा देश उसके साथ खड़ा हो जाए और अदालत को तुरंत न्याय देने पर विवश होना पड़े। दुर्भाग्य यह है कि निर्भया के समय में जो लोग उसको इंसाफ़ दिलाने के लिए आंदोलित थे और सड़कों पर संघर्ष कर रहे थे वही लोग आज सत्ता में हैं और इन के राज में हर दिन एक निर्भया हवस की भेंट चढ़ती जा रही है।
एक कारण हमारा पाठ्यक्रम और एजुकेशन सिस्टम भी है। पूरे पाठ्यक्रम में इंसान दोस्ती, महिलाओं का सम्मान, बहनों की इज़्ज़त-आबरू की हिफ़ाज़त जैसे महत्वपूर्ण विषय पर कोई किताब पाठ्यक्रम में शामिल ही नहीं है, और यदि है भी तो पढ़ाई नहीं जाती। इसके विपरीत कामवासना को उत्तेजित करने वाले स्रोतों की भरमार है, उदहारण के तौर पर यूनिफॉर्म के नाम पर नग्नता, कल्चरल प्रोग्राम के नाम पर डांस, अधिकांश विद्यालयों में पुरुष शिक्षकों का महिला शिक्षिकाओं के साथ प्रेम प्रसंग आदि। आज ना वह शिक्षक हैं जो अपने छात्रों को अनुशासन और नैतिक मूल्यों की तालीम देते थे। ना वह मां बाप हैं जो अपने बच्चों पर नज़र रखते थे। एजुकेशन सिस्टम की इस ख़राबी ने इंसानियत को हैवानियत के मक़ाम पर ला कर खड़ा कर दिया है।
धर्म, ज़ात और पार्टियों के भेदभाव ने भी अपराधियों के हौसले बढ़ा दिए हैं। जब इंसाफ़ और क़ानून नाफ़िज़ करने वाली संस्थाएं धर्म और जाति देख कर कारवाई करती हों, जहां सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष के बीच इंसाफ़ के पैमाने बदल जाते हों, वहां सब से पहले जो चीज़ असुरक्षित हो जाती है वह इंसान की जान है। इंसानों में औरत सब से ज़्यादा ज़ुल्म की शिकार होती है। अगर मुजरिम सत्ताधारी पार्टी का हो तो उसके ख़िलाफ़ पहले तो मुक़दमे ही नहीं लिखे जाते और अगर किसी दबाव में आकर पुलिस FIR लिखने पर मजबूर भी होती है तो क़ानून की धाराएं हलकी कर दी जाती हैं। कभी कभी तो इस अंधेर नगरी में दोषियों के बदले निर्दोष को ही जेल भेज दिया जाता है।
अपराध के बढ़ते हुए आंकड़े ख़ास तौर पर औरतों के साथ बर्बरता एवं अत्याचार का एक कारण मीडिया भी है। मीडिया भी दो भाग में बंटी हुई है। एक गिरोह वह है जिसे हुकूमत की सरपरस्ती हासिल है, यह गिरोह बड़ा भी है और शक्तिशाली भी। दूसरा गिरोह जो सरकार की सरपरस्ती से वंचित है, वह बहुत छोटा है। उसकी आवाज़ दब जाती है या दबा दी जाती है। इसका मतलब यह है कि जब देश के सारे स्तंभ मीडिया, प्रशासन और अदालत मुजरिम की हौसला अफ़ज़ाई करने में मसरूफ़ हों तब आपकी बहू बेटियाँ कैसे सुरक्षित रह सकती हैं?
सवाल यह है कि इन हालात में हमारी क्या ज़िम्मेदारी है। क्या मात्र क़ानून बना देने भर से औरत को सुरक्षा और बराबरी के अधिकार मिल सकते हैं। क्या मात्र सड़कों, बसों और ऑटो रिक्शा पर नारे लिख देने से औरत का सम्मान और उसकी गरिमा को बाक़ी रखा जा सकता है ? क्या 'महिला दिवस’ मना लेने से औरत महफ़ूज़ हो जाती है? या उसके लिए हमें अपनी मानसिकता, दिल और दिमाग़ की तरबियत करना होगी। जहां औरत के बारे में गंदे और बुरे ख़यालात जन्म लेते हैं? क्या ऐसे हालात में हम को अपने पाठ्यक्रम में स्त्रियों की पवित्रता और गरिमा को समझने वाले अध्याय को शामिल नहीं करना चाहिए?
महिलाओं को यह भी समझना चाहिए कि उनके पास उनकी जान से प्यारी उनकी इज़्ज़त-आबरू है। स्त्रियों को उन पाखंडियों से चौकन्ना रहने की ज़रुरत है, जो उनकी आज़ादी का आंदोलन अपने कामवासना को सुख पहुँचाने के लिए चलाते हैं। वास्तव में उन्हें महिलाओं से कोई हमदर्दी नहीं होती। जब एक ऐसी लड़की जो ख़ुद दूसरों को सुरक्षा देने की ट्रेनिंग ले चुकी हो, वही लड़की एक ऐसे क्रूर और ज़ालिम के हवस का शिकार हो जाती है जो क़ानून का मुहाफ़िज़ है तो उस से समाज की बाक़ी दूसरी बहन बेटियों की हिफ़ाज़त का सवाल बेमानी (अर्थहिन) हो जाता है।
जब इंसानियत की इज़्ज़त के मुहाफ़िज़ ही शोषण करने और उनकी आबरू के लुटेरे बन जाएं तो आम और मनचले आवारा लड़कों से किसी प्रकार के संस्कार और अनुशासन की उम्मीद कैसे की जा सकती है? आवश्यक है कि सत्ताधारी शक्तियां उन पॉलिसियों पर पुनर्विचार करें, जिन के कारण देश में अश्लीलता और बेहयाई में इज़ाफ़ा हो रहा हैं। क़ानून के मुहाफ़िज़ और अद्ल व इंसाफ़ के अलम्बरदार भी विश्लेषण करें कि आख़िर मुजरिमों और अपराधियों का साहस क्यों बढ़ता जा रहा है। आज जो सत्ता के नशे में मगन हैं वह भी ना भूलें कि उनकी बच्चियां सुरक्षित हैं। जब भेड़िये के मुंह को इंसान के ख़ून का मज़ा मिल जाता है तो वह अपनी भूख मिटाने के लिए मालिक पर भी हमला कर देता है।
कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली

https://youtu.be/zSk5cueM9D0

Saturday, September 4, 2021

दिल्ली दंगे के आरोपी अदालत से हुए बरी, कोर्ट ने भी पुलिस को लगाई थी फटकार

 दिल्ली में साल 2020 में हुये दंगों की जांच में पुलिस की भारी लापरवाही सामने आई. यही कारण है कि आरोपी बरी हो रहे हैं. आरोपियों को बरी करते हुए कोर्ट ने भी मामले में टिप्पणी करते हुए दिल्ली पुलिस को फटकार लगाई थी.आखिर दिल्ली पुलिस की जांच में क्या झोल है, ये जानने के लिये हमने आरोपियों के वकील दिनेश तिवारी से बातचीत की. 2020 की फरवरी में दिल्ली दंगों की आग में झुलसी थी, लेकिन इस मामले में अभी तक न्याय नहीं मिल पाया है. वजह है पुलिस की जांच में लापरवाही. कोर्ट ने भी पुलिस की तफ्तीश पर सवाल उठाया है. कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाते हुए कहा कि इतिहास, जब विभाजन के बाद के सांप्रदायिक दंगे को देखेगा, तो वो पाएगा कि दिल्ली दंगों में जांच एजेंसी ने ठीक से जांच नहीं की. कोर्ट की टिप्पणी के बाद ये मामला एक बार फिर सर्खियों में है. आखिर कोर्ट को इस मामले में सख्त टिप्पणी क्यों करना पड़ाये जानने के लिये ईटीवी भारत की टीम ने आरोपियों के अधिवक्ता दिनेश तिवारी से बातचीत की.

अधिवक्ता दिनेश तिवारी ने बताया कि 25 फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली के चांद बाग इलाले में दंगे हुए थे. दंगे के दो मामलों में दयालपुर पुलिस ने, उनके तीन क्लाइंट को अप्रैल 2020 में गिरफ्तार किया था. इनमें से एक मामले में फर्नीचर की दुकान में आग लगाकर उसे लूटा गया था. जबकि, दूसरे मामले में पान के खोखे को जलाकर लूटा गया था. उनके क्लाइंट को खजूरी खास में दर्ज एक मामले में 9 मार्च को ही पुलिस गिरफ्तार कर चुकी थी, लेकिन इसके एक महीने बाद दयालपुर पुलिस ने उन्हें अपने चांद बाग में हुई घटना को लेकर दर्ज दो मामलों में गिरफ्तार कर लिया.

अधिवक्ता दिनेश तिवारी ने बताया कि चांद बाग में हुई इन दोनों घटनाओं में पुलिस के पास कोई चश्मदीद गवाह नहीं था. इसलिए उन्होंने एक मामले में बीट के सिपाही पवन जबकि दूसरे मामले में सिपाही ज्ञान को गवाह बना दिया. दोनों ने अपने बयान में कहा गया कि उन्होंने दंगे में मौजूद लोगों की भीड़ के बीच इन तीन आरोपियों को पहचाना है. लेकिन अदालत के समक्ष वह इस बात को साबित नहीं कर सके कि वह मौके पर मौजूद थे. थाने से न तो कोई ऐसा रिकॉर्ड मिला और ना ही मौके से कोई सीसीटीवी फुटेज जो साबित करे कि दोनों पुलिसकर्मी मौके पर मौजूद थे. वह इसे लेकर कोई ठोस सबूत अदालत के समक्ष नहीं रख सके.

अदालत को वह यह भी नहीं बता सके कि जब आरोपियों को उन्होंने मौके पर पहचान लिया था तो इसकी जानकारी वरिष्ठ अधिकारियों को क्यों नहीं दी. उनकी गिरफ्तारी करने में डेढ़ महीने से ज्यादा का समय क्यों लगा जबकि वह पहले से जेल में थे. अधिवक्ता ने बताया कि अदालत ने यह माना है कि पुलिस ने इस मामले में केस सुलझाने के लिए इन युवकों को आरोपी बनाया जबकि उनके पास कोई साक्ष्य नहीं था. इस आधार पर उनके तीनों क्लाइंट को अदालत ने आरोप मुक्त कर दिया है. अधिवक्ता दिनेश तिवारी ने बताया कि अदालत ने इन दोनों मामलों की जांच को लेकर पुलिस पर नाराजगी जाहिर की है. अदालत ने कहा है कि पुलिस ने इस केस के लिए करदाताओं की मेहनत की गाढ़ी कमाई को बर्बाद किया है. आजादी के बाद जब भी साम्प्रदायिक दंगे याद किये जाएंगे तो यह दंगे पुलिस की लचर जांच के लिए याद किये जायेंगे. अदालत ने कहा कि इस तरीके से केस सुलझाने के लिए किसी को झूठे केस में फंसाना ट्रायल के दैरान पीड़ा देने वाला है.

Report@ETV Bharat

Friday, September 3, 2021

'कितनों को दिलवाई सजा, कितने मामले लंबित? पेश करें डेटा', CBI की कार्यशैली पर सुप्रीम कोर्ट नाराज

अदालत ने कहा कि हम सीबीआई द्वारा निपटाए जा रहे मामलों के बारे में डेटा चाहते हैं. सीबीआई कितने मामलों में मुकदमा चला रही है?  समय अवधि जिसके लिए मुकदमे अदालतों में मामले लंबित हैं.  निचली अदालतों और उच्च न्यायालयों में सीबीआई की सफलता दर क्या है? कोर्ट ने कहा कि हम देखना चाहते हैं कि एजेंसी की सफलता दर क्या है? सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय जांच ब्यूरो की कार्यशैली पर सवाल खड़े किए हैं. एक मामले में CBI द्वारा 542 दिनों की अत्यधिक देरी के बाद अपील दाखिल करने पर सुप्रीम कोर्ट ने इस केंद्रीय एजेंसी के कामकाज औप उसके परफॉर्मेन्स का विश्लेषण करने का फैसला किया है. शीर्ष अदालत ने एजेंसी द्वारा मुकदमा चलाने वाले मामलों में सजा की कम दर को देखते हुए ये कदम उठाया है. 

शीर्ष अदालत ने CBI निदेशक को उन मामलों की संख्या पेश करने का निर्देश दिया है जिनमें एजेंसी निचली अदालतों और हाई कोर्टों में अभियुक्तों को दोषी ठहराने में सफल रही है. अदालत ने ये भी पूछा है कि निचली अदालतों और हाई कोर्टों में कितने ट्रायल लंबित हैं और वे कितने समय से लंबित हैं ? अदालत ने ये भी पूछा है कि निदेशक कानूनी कार्यवाही के लिए विभाग को मजबूत करने के लिए क्या कदम उठा रहे हैं? जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि एजेंसी के लिए केवल मामला दर्ज करना और जांच करना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना भी है कि अभियोजन सफलतापूर्वक किया जाए. अदालत ने पहले की सुनवाई में कहा था कि "कर्तव्यों को निभाने में घोर लापरवाही की एक गाथा" है , जिसके परिणामस्वरूप अदालतों में मामले दर्ज करने में अत्यधिक देरी हुई और इसके निदेशक से जवाब मांगा था. 

सीबीआई की ओर से पेश हुए एएसजी संजय जैन ने दलील दी कि भारत जैसी प्रतिकूल मुकदमेबाजी प्रणाली में मुकदमेबाजी में सफलता दर को दक्षता निर्धारित करने वाले कारकों में से एक माना जाना चाहिए लेकिन पीठ ने कहा कि दुनिया भर में एक ही मानदंड का पालन किया जाता है और ऐसा कोई कारण नहीं है कि इसे सीबीआई पर लागू नहीं किया जाना चाहिए. अदालत ने कहा कि हम सीबीआई द्वारा निपटाए जा रहे मामलों के बारे में डेटा चाहते हैं. सीबीआई कितने मामलों में मुकदमा चला रही है?  समय अवधि जिसके लिए मुकदमे अदालतों में मामले लंबित हैं.  निचली अदालतों और उच्च न्यायालयों में सीबीआई की सफलता दर क्या है? कोर्ट ने कहा कि हम देखना चाहते हैं कि एजेंसी की सफलता दर क्या है?

सिविल डिफेंसकर्मी लड़की की हत्या के विरोध में जामा मस्जिद के बाहर प्रदर्शन, मुआवजे की मांग

दिल्ली की संगम विहार की रहने वाली 21 वर्षीय सिवल डिफेंसकर्मी लड़की से हुई हैवानियत मामले का विरोध लगातार तेज होता जा रहा है. कैंडल मार्च निकालने के बाद लोगों ने शुक्रवार को जुमे की नमाज के बाद जामा मस्जिद के बाहर प्रदर्शन किया. इस दौरान उन्होंने सरकार से 1 करोड़ रुपये और घर के एक सदस्य को नौकरी देने की मांग की.

संगम विहार की 21 वर्षीय लड़की के साथ हैवानियत के मामले का विरोध बढ़ता जा रहा है. अब इसको लेकर शुक्रवार को जुमे की नमाज के बाद जामा मस्जिद के बाहर भी प्रदर्शन किया गया. इस दौरान उन्होंने आरोपियों को फांसी देने की मांग की. साथ ही सरकार से 1 करोड़ रुपये और घर के एक सदस्य को नौकरी देने की गुहार लगाई. पीड़ित लड़की दिल्ली सिविल डिफेंस में कार्यरत थी. उसके साथी ने ही उसे फरीदाबाद के सूरजकुंड पाली रोड पर चाकू घोंपकर हत्या कर दी थी. इसके बाद दिल्ली के कालिंदी कुंज थाने में आत्मसमर्पण करते हुए बताया था कि मेरी पत्नी सूरजकुंड फरीदाबाद में पड़ी है. इस मामले में मृतका के परिजनों ने इस मामले में लड़की के साथ हैवानियत का आरोप लगाया है. साथ ही इस मामले में और भी लोगों के शामिल होने का आरोप है. इस पूरे मामले में दिल्ली पुलिस ने हरियाणा पुलिस से संपर्क किया था और लड़की के शव को बरामद किया गया था. जिसके बाद फरीदाबाद जिले के सूरजकुंड थाने में हत्या का मामला दर्ज किया गया है और हरियाणा पुलिस पूरे मामले की जांच कर रही है. सिविल डिफेंस कर्मी के साथ हुई बर्बरता को लेकर विरोध प्रदर्शन बढ़ता जा रहा है. इस पूरे मामले की जांच सीबीआई से कराने और पीड़ित परिवार को 1 करोड़ का मुआवजा देने की मांग उठ रही है.

हौजरानी प्रेस एन्क्लेव में बन सकता है फ्लाईओवर: 50 हजार से ज्यादा लोगों को जाम से मिलेगा छुटकारा

दिल्ली वालों को बड़ी राहत मिलने वाली है। साकेत मैक्स अस्पताल के बाहर पंडित त्रिलोक चंद शर्मा मार्ग पर लगने वाले जाम से जल्द मुक्ति मिलेगी। प...