दिल्ली में साल 2020 में हुये दंगों की जांच में पुलिस की भारी लापरवाही सामने आई. यही कारण है कि आरोपी बरी हो रहे हैं. आरोपियों को बरी करते हुए कोर्ट ने भी मामले में टिप्पणी करते हुए दिल्ली पुलिस को फटकार लगाई थी.आखिर दिल्ली पुलिस की जांच में क्या झोल है, ये जानने के लिये हमने आरोपियों के वकील दिनेश तिवारी से बातचीत की. 2020 की फरवरी में दिल्ली दंगों की आग में झुलसी थी, लेकिन इस मामले में अभी तक न्याय नहीं मिल पाया है. वजह है पुलिस की जांच में लापरवाही. कोर्ट ने भी पुलिस की तफ्तीश पर सवाल उठाया है. कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाते हुए कहा कि इतिहास, जब विभाजन के बाद के सांप्रदायिक दंगे को देखेगा, तो वो पाएगा कि दिल्ली दंगों में जांच एजेंसी ने ठीक से जांच नहीं की. कोर्ट की टिप्पणी के बाद ये मामला एक बार फिर सर्खियों में है. आखिर कोर्ट को इस मामले में सख्त टिप्पणी क्यों करना पड़ाये जानने के लिये ईटीवी भारत की टीम ने आरोपियों के अधिवक्ता दिनेश तिवारी से बातचीत की.
अधिवक्ता दिनेश तिवारी ने बताया कि 25 फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली के चांद बाग इलाले में दंगे हुए थे. दंगे के दो मामलों में दयालपुर पुलिस ने, उनके तीन क्लाइंट को अप्रैल 2020 में गिरफ्तार किया था. इनमें से एक मामले में फर्नीचर की दुकान में आग लगाकर उसे लूटा गया था. जबकि, दूसरे मामले में पान के खोखे को जलाकर लूटा गया था. उनके क्लाइंट को खजूरी खास में दर्ज एक मामले में 9 मार्च को ही पुलिस गिरफ्तार कर चुकी थी, लेकिन इसके एक महीने बाद दयालपुर पुलिस ने उन्हें अपने चांद बाग में हुई घटना को लेकर दर्ज दो मामलों में गिरफ्तार कर लिया.
अधिवक्ता दिनेश तिवारी ने बताया कि चांद बाग में हुई इन दोनों घटनाओं में पुलिस के पास कोई चश्मदीद गवाह नहीं था. इसलिए उन्होंने एक मामले में बीट के सिपाही पवन जबकि दूसरे मामले में सिपाही ज्ञान को गवाह बना दिया. दोनों ने अपने बयान में कहा गया कि उन्होंने दंगे में मौजूद लोगों की भीड़ के बीच इन तीन आरोपियों को पहचाना है. लेकिन अदालत के समक्ष वह इस बात को साबित नहीं कर सके कि वह मौके पर मौजूद थे. थाने से न तो कोई ऐसा रिकॉर्ड मिला और ना ही मौके से कोई सीसीटीवी फुटेज जो साबित करे कि दोनों पुलिसकर्मी मौके पर मौजूद थे. वह इसे लेकर कोई ठोस सबूत अदालत के समक्ष नहीं रख सके.
अदालत को वह यह भी नहीं बता सके कि जब आरोपियों को उन्होंने मौके पर पहचान लिया था तो इसकी जानकारी वरिष्ठ अधिकारियों को क्यों नहीं दी. उनकी गिरफ्तारी करने में डेढ़ महीने से ज्यादा का समय क्यों लगा जबकि वह पहले से जेल में थे. अधिवक्ता ने बताया कि अदालत ने यह माना है कि पुलिस ने इस मामले में केस सुलझाने के लिए इन युवकों को आरोपी बनाया जबकि उनके पास कोई साक्ष्य नहीं था. इस आधार पर उनके तीनों क्लाइंट को अदालत ने आरोप मुक्त कर दिया है. अधिवक्ता दिनेश तिवारी ने बताया कि अदालत ने इन दोनों मामलों की जांच को लेकर पुलिस पर नाराजगी जाहिर की है. अदालत ने कहा है कि पुलिस ने इस केस के लिए करदाताओं की मेहनत की गाढ़ी कमाई को बर्बाद किया है. आजादी के बाद जब भी साम्प्रदायिक दंगे याद किये जाएंगे तो यह दंगे पुलिस की लचर जांच के लिए याद किये जायेंगे. अदालत ने कहा कि इस तरीके से केस सुलझाने के लिए किसी को झूठे केस में फंसाना ट्रायल के दैरान पीड़ा देने वाला है.
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