दिल्ली: समय के अनुसार अब डिजिटल स्पेस को रियल स्पेस बनाने की आवश्यकता है इसी के साथ, नगर स्तर से लेकर, एकेडमिक संस्थानो, कॉरपोरेट सेक्टर के साथ संस्कृति संस्थानो को आगे आकर कलाओं को स्पॉन्सर करना चाहिए, और इसके लिए कलाकारों को भी एक अप्रोच डेवलप करनी पड़ेगी, यह बात प्रख्यात रंगकर्मी एवं संगीत नाटक अकादमी के डिप्टी सेकेट्री (ड्रामा) श्री सुमन कुमार ने प्रासंगिक द्वारा आज दोपहर आयोजित 'डिजिटल प्लेटफार्म पर रंगकलाओं के अर्थतंत्र' की परिचर्चा के दौरान कही। सुमन कुमार जी ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि डिजिटल स्पेस के अनुसार कलाकारों को अब छोटी और रोचक प्रस्तुतियां तैयार करने के साथ उसकी मार्केटिंग करना भी सीखने की आवश्यकता पर बल दिया, परिचर्चा में यह भी निकल कर आया कि आर्ट के लिए अमेजॉन या नेटफ्लिक्स जैसे चैंनल बनने के साथ कलाकर्मियों का CINTA या SWA जैसा एक राष्ट्रीय स्तर का संगठन भी बनना चाहिए । उनकी इस बात से परिचर्चा में शामिल प्रसिद्ध लेखक एवं रंगनिदेशक श्री नज़ीर कुरैशी, प्रख्यात रंगकर्मी श्री रामचन्द्र सिंह, प्रसिद्ध नृत्यांगना प्रतिभा सिंह, गायक एवं संगीतकार श्री नवनीत पांडेय, वरिष्ठ रंगकर्मी श्री बृजेश अनय, श्री सौरभ कौशिक, श्री शैलेन्द्र द्विवेदी, श्री बृजेश मिश्रा, श्री शिव पटेल आदि सभी ने सहमति व्यक्त की। क़रीब ढाई घण्टे चली इस डिजिटल चर्चा में मुख्य वक्ता सुमन जी सहित सभी लोगों का हार्दिक आभार व्यक्त करते हुए संस्था के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ रंगकर्मी आलोक शुक्ला ने जून में जल्द ही पुनः आयोजित नाट्य पाठ में आने का आग्रह किया। रिपोर्ट@WJI सोशल मीडिया
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Sunday, May 31, 2020
Tuesday, May 19, 2020
मजदूरों का दर्द: फुरकान शाह
मजदूर घरों को लौट रहे हैं। भूख, लाचारी, गरीबी, अभाव, तिरस्कार, अवहेलना, भय, अनिश्चितता या अपनों से दूरी। कारण जो भी हो आज इनका मुख्य उद्देश्य अपने उसी घर को लौट जाना है जिसको छोड़कर रोजी रोटी की तलाश में निकले थे। शहरों की चकाचौंध ने गाँव में अंधेरे पसार दिए हैं। खण्डहरों में तबदील होते गाँव वर्षों से बुद्धिजीवियों की चिंता का विषय बने हुए हैं। शहरों में भी चुनौतियाँ कम नहीं हैं किन्तु भौतिक सुख की चाहत ने ग्रामीणों को गाँव का स्वर्ग जैसा सुख छोड़कर शहरों में नारकीय जीवन जीने को मजबूर कर दिया है। आज जब घर या गाँव लौटने का समय आया तो लगता है कि समूचा भारत उमड़ पड़ा हो। लोग देखकर हैरान है कि इतनी बड़ी संख्या में लोग इधर उधर हैं। ये सब एकाएक नहीं हुआ है बल्कि पलायन में सदियाँ लगीहैं। इन्हें दोबारा स्थापित होने में भी लंबा समय लगेगा। लोग आज हर अव्यवस्था के लिए सरकार को दोषी ठहराते हैं क्या लोगों का खुद का कोई दोष नहीं जो विकास के मुद्दों को न देखकर सिर्फ धर्म और जाति के नाम पर वोट देते रहे। और जनता के सेवक जो चुनाव के दौरान प्रत्येक घर तक पहुंचने की कोशिश करते हैं, चुनाव जीतने के बाद पांच साल तक और पांच ही क्या जिंदगी भर मोटा वेतन और पेंशन, भत्ते प्राप्त कर मौज की ज़िन्दगी गुजारते हैं ये देखने की जहमत तक नहीं उठाते कि उनके क्षेत्र में लोगों की समस्याएं क्या हैं। याद आती हैं उन राजाओं की कहानियां जो भेष बदलकर घूमते थे। जो अपनी प्रजा के दुख को अपना दुख समझते थे। आज जब देश में त्राहि त्राहि मची हुई है, निर्धन और मध्यम वर्ग के माथे पर चिंता की लकीरें हैं तमाम राजनैतिक पार्टियाँ इसे भी एक अवसर के रूप में देख रही हैं। देखें लेकिन इन गरीबों के बारे में सोचना होगा। इन्हें गले लगाना होगा। स्थानीय लोगों को काम मिले इसके लिए प्रत्येक स्तर पर दबाव बनाना होगा। सिर्फ सरकारी दफ्तरों में बैठे ,सरकारी वेतन ले रहे लोग और धनी वर्ग ही प्रजा नहीं है प्रजा वो भी है जिसका किसी सरकारी सहायता वाले दफ्तर में नाम नहीं किन्तु चुनाव के समय बड़ी आस से तुम्हें वोट देते हैं। # फुरकान शाह, प्रबन्धक, शाहजहाँ पब्लिक स्कूल याकूबपुर अमरोहा यूपी
Wednesday, May 13, 2020
PM Modi ने दिए 20 लाख करोड़ : आबादी के हिसाब से आपके हिस्से में कितना आया
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना वायरस की वजह से लॉकडाउन झेल रहे देश की आर्थिक हालत सुधारने के लिए 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज का ऐलान किया है. इस पैकेज की पूरी जानकारी आज वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण शाम 4 बजे देंगी. माना जा रहा है कि वित्त मंत्री यह बताएंगी कि इस पूरे पैकेज में किस सेक्टर तो कितना दिया गया है. वहीं मंगलवार को पीएम मोदी ने कहा कि इस पैकेज का इस्तेमाल देश के हर वर्ग किसान, मजदूर, लघु उद्योगों और कामगारों की मदद के लिए मदद किया जाएगा. पीएम मोदी ने यह भी कहा कि कोरोना वायरस की वजह से देश की आर्थिक गतिविधियों को ज्यादा नहीं रोका जा सकता है. अब हमें दो गज की दूरी और तमाम दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए इसके साथ ही रहना सीखना होगा. उन्होंने कहा कि कोरोना वायरस से जंग अभी लंबी चलने वाली है. फिलहाल पीएम मोदी के 20 लाख करोड़ के पैकेज के ऐलान के बाद लोगों के मन में चार सवाल हैं जिसे वे जानना चाहते हैं.
आपके हिस्से में कितने: अगर भारत की आबादी 133 करोड़ (1,33,00,00,000 - 133 के बाद सात शून्य) मानी जाए, तो इस हिसाब से हर एक के हिस्से में 15,037.60 रुपये आएंगे. अगर आबादी 130 करोड़ (1,30,00,00,000 - 13 के बाद आठ शून्य) मानी जाए, तो इस हिसाब से हर एक के हिस्से में 15,384.60 रुपये आएंगे. हालांकि यह एक बात साफ कर दें कि यह आर्थिक प्रति व्यक्ति के हिसाब से नहीं बांटा जाएगा, ऐसा कोई प्रावधान नहीं है.
20 लाख करोड़ में कितने जीरो: पीएम मोदी ने के 20 लाख करोड़ के पैकेज पर कई लोग यह भी जानने की कोशिश कर रहे हैं कि यह कुल कितनी रकम है और इसमें कितने शून्य आते हैं. इस सवाल पर कॉमेडियन कुणाल कामरा ने बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा पर तंज भी कसा है. आपको हता दें कि 20 लाख लाख करोड़ को अगर संख्या यानी नंबरों में बदलें तो 20000000000000 होगा. देश की कुल जीडीपी का कितना : प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोरोना वायरस महामारी के कारण लड़खड़ाई अर्थव्यवस्था को फिर से मजबूती देने के लिये 20 लाख करोड़ रुपये के जिस प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा मंगलवार को की वह दुनिया में विभिन्न देशों द्वारा अब तक घोषित बड़े आर्थिक पैकेजों में से एक है. प्रधानमंत्री ने बताया कि 20 लाख करोड़ रुपये का यह पैकेज देश की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का करीब 10 प्रतिशत के बराबर होगा. इस लिहाज से यह कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे देशों द्वारा घोषित बड़े पैकेजों में सुमार हो गया है. क्या होता है जीडीपी: सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) एक निश्चित समय में देश के अंदर बनने वाली सभी तैयार वस्तुओं और सेवाओं की कीमत या मौद्रिक मूल्य को जीडीपी कहा जाता है. जीडीपी में निजी और सार्वजनिक उपभोग, निवेश, सरकारी खर्च, निजी आविष्कार, भुगतान-निर्माण लागत और व्यापार का विदेशी संतुलन शामिल है. जीडीपी एक तरह की आर्थिक सेहत के स्थिति जानने का पैमाना होता है.
Monday, May 11, 2020
ट्रेन चलने से 90 मिनट पहले पहुंचना होगा स्टेशन, रेलगाड़ी में सफर करने को लेकर RPF के विशेष निर्देश
कोरोनावायरस लॉकडाउन के बीच रेल मंत्रालय की कल (मंगलवार) से रेल सेवाओं को फिर से शुरू करने की योजना है. रेल मंत्रालय ने रविवार को कहा कि उसकी योजना चरणबद्ध तरीके से ट्रेनों को चलाने की है. इस बीच रेलवे सुरक्षा बल ने यात्रियों के कुछ विशेष निर्देश दिए हैं. आरपीएफ के महानिदेशक अरुण कुमार ने कहा, "यात्रियों से ट्रेन के निकलने के समय से 90 मिनट पहले रेलवे स्टेशन पर पहुंचने के लिए कहा जायेगा." कुमार ने कहा कि यात्रियों को स्टेशन के अंदर आने से पहले थर्मल स्क्रीनिंग से गुजरना होगा. साथ ही रेलवे यात्रियों से यात्रा के दौरान थोड़ा-बहुत सामान ले जाने का आग्रह करेगा. ट्रेन में यात्रा करने को लेकर पहले भी कुछ निर्देश जारी किए गए हैं. इसके तहत, ऐसे यात्री जो बुखार आदि से पीड़ित है, यह यात्रा नहीं कर सकेंगे. इसके अलावा जिस यात्री में कोरोना वायरस के कोई भी लक्षण पाए जाएंगे, उसे यात्रा की इजाजत नहीं दी जाएगी. रविवार को रेल मंत्रालय ने कोरोना वायरस लॉकडाउन के मद्देनदर बंद रेल सेवाओं को फिर से शुरू करने की घोषणा की थी. इसके तहत मंगलवार (12 मई) से ट्रेनों को चरणबद्ध तरीके से चलाने की योजना है.
भारतीय रेलवे ने रविवार शाम को यह सूचना दी थी कि 12 मई से 15 जोड़ी ट्रेनें चलाई जाएंगी. रेलवे की तरफ से जारी प्रेस रिलीज के अनुसार इस दौरान नई दिल्ली स्टेशन से डिब्रूगढ़, अगरतला, हावड़ा, पटना, बिलासपुर, रांची, भुवनेश्वर, सिकंदराबाद, बेंगलुरु, चेन्नई, तिरुवनंतपुरम, मडगांव, मुंबई सेंट्रल, अहमदाबाद और जम्मू तवी को जोड़ने वाली इन ट्रेनों को विशेष ट्रेनों के रूप में चलाया जाएगा. इन ट्रेनों के लिए आज शाम 4 बजे से IRCTC से बुकिंग की जा सकेगी. इन ट्रेनों में सिर्फ एसी कोच होंगे.
Monday, May 4, 2020
स्पेशल स्टोरी: 350 साल पहले खुद को क्वरांटाइन करने वाले गांव की कहानी!
क्वरांटाइन...! हमारी देसी डिक्शनरी में अब यह शब्द नया नहीं रह गया है. क्वरांटाइन का मतलब बच्चा-बच्चा जानता है. खुद को घर में कैद कर लेना, समाज से दूरी बना लेना, खुद में खुद को समेंट लेना..बस यही तो क्वरांटाइन है. कोरोना संक्रमण के दौरान यह खुद को बचाए रखने का एकमात्र विकल्प है. पर दिक्कत ये है कि कुछ लोग इस क्वरांटाइन से भी तंग आ रहे हैं. इंसान मिलनसार प्राणी है. समाज के बिना उसका गुजारा संभव नहीं है. पर फिर भी खुद को जिंदा रखने की जद्दोजहद में हम सब एक-दूसरे से दूर हैं. फिर भले ही कितना ही अकेलापन महसूस हो रहा हो, पर ये जरूरी है. अब आज की ये जरूरत बहुत ज्यादा परेशान कर रही है तो आपको 350 साल पहले की एक घटना के बारे में जरूर जानना चाहिए. यह घटना "ग्रेट प्लेग ऑफ लंदन" के दौरान की है. जब एक गांव के लोगों ने महामारी को रोकने के लिए खुद को अपने आप ही क्वरांटाइन कर लिया था. यानि उस गांव ने मौत को अपने दरवाजे से बाहर नहीं जाने दिया. तो चलिए जानते हैं लंदन के पास बसे एक वीरान गांव एयम का किस्सा...
1665-66 की बीच इंग्लैंड ने भयानक प्लेग के कहर को झेला था. जब से दुनिया में कोरोना ने तबाही मचाना शुरू किया है, तब से प्लेग के उस दौर को कई बार याद किया जा चुका है. "ग्रेट प्लेग ऑफ लंदन" जिसके बारे में तमाम तरह की कहानियां कही गईं हैं, पर सबसे दर्दनाक और सीख देने वाली कहानी है एयम गांव की. एयम आज एक पर्यटक स्थल बन चुका है. ठीक वैसे ही जैसे हमारे राजस्थान का कुलधरा गांव. जहां एक वक्त में इंसानी बसाहट थी, खुशियां थीं, त्यौहार थे, मेले थे और फिर अचानक गांव ऐसे वीरान हुआ कि दोबारा बस नहीं पाया. एयम के वीरान होने की कहानी 350 साल पहले की है. यह गांव लंदन से तक़रीबन 3 घंटे की दूरी पर डर्बीशायर डेल्स जिला में है. इस गांव के बाहरी हिस्सों में अब भी 1 हजार से कम लोग रह रहे हैं पर जो मुख्य हिस्सा है वो प्लेग महामारी के बाद से पूरी तरह वीरान है. प्लेग ने 1665-66 में तकरीबन 14 महीनों तक इंग्लैंड के विभिन्न इलाकों, खासतौर पर लंदन और उसके इर्दगिर्द के क्षेत्रों में ख़ूब तबाही मचाई थी. सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार, इस महामारी के वजह से 75,000 लोगों को जानें गंवानी पड़ी थी. हालांकि, कई इतिहासकार दावा करते हैं कि : 1 लाख से ज्यादा लोग मौत में मुंह में चले गए थे. खैर, किस्सा प्लेग के आंकड़ों का नहीं, बल्कि साहस का है. क्योंकि इस गांव ने अपनी जान पर खेल कर इस संक्रमण को फ़ैलने से रोका. अगर उस दौर में एयम गांव के लोगों ने पूरे गांव को क्वरांटाइन नहीं किया होता, तो शायद देश में इतनी मौतें होती कि उनकी गिनती नहीं की जा सकती थी.
सीखा खुद को क्वरांटाइन करना: जब पूरे लंदन में प्लेग फैल रहा था, तब कुछ समय तक एयम गांव सुरक्षित था. वजह ये थी कि लोग अपने गांव से कम ही बाहर जाया करते थे. लेकिन खतरे से बेखबर गांव का दर्जी अलेक्जेंडर हैडफील्ड लंदन पहुंचा, जहां से उसने कपड़े का थान खरीदा. वह नहीं जानता था कि जो थान खरीदा है वह प्लेग फैलाने वाले पिस्सू से संक्रमित है. थान गांव पहुंचा और उसकी दुकान में काम चलता रहा. पर हफ्ते के भीतर उस सहायक जॉर्ज विकर्स की मौत हो गई, जिसने बंडल को खोला था. हफ्तेभर के भीरत वह जिन-जिन लोगों से मिला थे, वे सभी संक्रमित हो चुके थे और धीरे-धीरे एक चेन तैयार हो गई. संक्रमण पूरे गांव में फैल गया. सितंबर से दिसंबर 1665 तक करीब 42 ग्रामीणों की मौत हो गई. 1666 की शुरूआत में लोगों ने गांव से बाहर निकलने की योजना बनाई. ताकि, बचे हुए लोग सुरक्षित रहें. हालांकि गांव के रेक्टर विलियम मोम्पेसन और निष्कासित पूर्व रेक्टर थॉमस स्टेनली ने ग्रामीणों को समझाया, कि ऐसा करना ज्यादा खतरनाक है. क्योंकि गांव के बाहर भी महामारी का प्रकोप है. अब उनके सामने बस एक ही रास्ता है कि वे खुद को कैद कर लें. वो भी कुछ इस तरह कि यह बीमारी आसपास के उन गांवों में ना फैले जहां तक अभी संक्रमण नहीं पहुंचा है. हालांकि, इस बलिदान के लिए गांव वालों को राजी करना इतना आसान नहीं था. बहुत समझाने के बाद अधिकांश ग्रामीण इस फैसले के लिए तैयार हो गए और जो तैयार नहीं थे वे गांव से बाहर निकल गए.
हालांकि, उनमें से कभी कोई लौटकर बाहर नहीं आया. खैर 24 जून 1666 को गांव के सारे रास्ते बाहरी लोगों के लिए बंद कर दिए गए. विलियम मोम्पेसन के कहने पर गांव के चारों ओर एक पत्थर की दीवार बना दी गई. जिसे आज भी "मोम्पेस्सन वेल" के नाम से जाना जाता है. इस दीवार में एक छोटा सा छेद रखा गया. जहां से गांव वाले चंद सिक्के बाहर फेंक देते थे और दूसरे लोग जो मदद करना चाहते थे वे इस छेद से खाने और दूसरी जरूरत की चीजें पहुंचा दिया करते थे. इससे महामारी गांव से बाहर तो नहीं गई पर गांव से भी नहीं गई. लोगों ने अपने घरों के भीतर ही जमीन खोदकर सुरंगें तैयार कीं. घर की महिलाएं और बच्चे इसी सुरंग में रहते, ताकि उन्हें जिंदा रखा जा सके. प्लेग से मरने वालों की लाशें गांव से काफी दूर जंगलों में दफनाई जानें लगी. अंतिम संस्कार की प्रक्रिया में भी गांव वालों के जुटने पर रोक लगा दी गई. कोई अपने घर से बाहर नहीं निकलता था. चर्च बंद कर दिए गए, सभाएं खुले मैदान में होती थीं, जिसमें केवल जरूरी लोग ही शामिल होते थे. लोग मरते रहे, ताकि दूसरे जिंदा रहें : इतने कठिन नियमों के बाद भी गांव में मौत का सिलसिला जारी रहा. क्योंकि संक्रमण गांव के भीतर ही था. संक्रमण का सबसे विकराल रूप अगस्त 1666 में दिखाई दिया. जब गांव में एक दिन के भीतर 5 से 6 मौते होने लगी. ऐसा कोई घर नहीं था, जहां किसी का शव ना हो. इतिहास में एक औरत का जिक्र है. जिसका नाम था एलिजाबेथ हैनकॉक.
इस महिला ने केवल 8 दिन के भीतर अपने पति और 6 छोटे मासूस बच्चों को दम तोड़ते देखा. उस औरत के दुख की कल्पना भी नहीं की जा सकती. कहा जाता है कि लोग इतना डरे हुए थे कि कोई उसकी मदद के लिए आगे नहीं आया. तब भी नहीं, जब वह अकेले कब्र खोदती थी. लोग गांव की पहाड़ी स्टोनी मिडल्टन पर खड़े होकर बस देखते रहते थे. एलिजाबेथ रोज अपने घर से एक लाश घसीट कर लेकर आती, रोज कब्र खोदती और उन्हें दफनाती. धीरे-धीरे संक्रमितों की संख्या इतनी ज्यादा हो गई कि गांव के अधिकांश परिवार ही खत्म हो गए. पर इन सबने धैर्य का साहस दिया और बीमारी को दूसरे गांव तक फैलने नहीं दिया. मोम्पेसन ने अपनी डायरी में लिखा है कि, वह दौर बहुत भयानक था पर ग्रामीणों का अपने ईश्वर में इतना ज्यादा विश्वास था कि वे मौत से घबराए नहीं. वे भागे नहीं, डटे रहे, ताकि बाकी दुनिया सुरक्षित रहे. हजारों मौत के बाद सितंबर-अक्टूबर में संक्रमण के मामले कम होने लगे और फिर 1 नवम्बर को यह बीमारी अचानक गायब हो गई. पर इस दौरान एयम ने अपने आधे से ज्यादा परिवार खो दिए. सरकारी दस्तावेजों की मानें तो एक साल के भीतर गांव के 76 परिवारों के 260 लोगों की मौत हुई थी. जबकि उस वक्त गांव की कुछ आबादी 800 से भी कम थी. महामारी का प्रकोप खत्म हो जाने के बाद भी एयम गांव के लोग खुद को क्वरांटाइन रखने के आदि हो चुके थे, या यूं कहें कि वे डरे हुए थे. कई सालों बाद लोगों ने खुद को बाहर निकालना शुरू किया और फिर धीरे-धीरे करके मुख्य गांव खाली हो गया. आज एयम एक पर्यटक स्थल बन चुका है. जहां लोग प्लेग के भयानक प्रकोप और दर्दनाक कहानियों को महसूस करते हैं. हम आज जिस क्वरांटाइन को जी रहे हैं यह उस क्वरांटाइन से लाख दर्ज बेहतर है जो 350 साल पहले एयम गांव के लोगों ने भोगा था. इसलिए खुद को कैदी ना समझें, बल्कि ये मानें कि आपका घर पर रहना दुनिया को सुरक्षित रखेगा.
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