Tuesday, May 19, 2020

मजदूरों का दर्द: फुरकान शाह

मजदूर घरों को लौट रहे हैं। भूख, लाचारी, गरीबी, अभाव, तिरस्कार, अवहेलना, भय, अनिश्चितता या अपनों से दूरी। कारण जो भी हो आज इनका मुख्य उद्देश्य अपने उसी घर को लौट जाना है जिसको छोड़कर रोजी रोटी की तलाश में निकले थे। शहरों की चकाचौंध ने गाँव में अंधेरे पसार दिए हैं। खण्डहरों में तबदील होते गाँव वर्षों से बुद्धिजीवियों की चिंता का विषय बने हुए हैं। शहरों में भी चुनौतियाँ कम नहीं हैं किन्तु भौतिक सुख की चाहत ने ग्रामीणों को गाँव का स्वर्ग जैसा सुख छोड़कर शहरों में नारकीय जीवन जीने को मजबूर कर दिया है। आज जब घर या गाँव लौटने का समय आया तो लगता है कि समूचा भारत उमड़ पड़ा हो। लोग देखकर हैरान है कि इतनी बड़ी संख्या में लोग इधर उधर हैं। ये सब एकाएक नहीं हुआ है बल्कि पलायन में सदियाँ लगीहैं। इन्हें दोबारा स्थापित होने में भी लंबा समय लगेगा। लोग आज हर अव्यवस्था के लिए सरकार को दोषी ठहराते हैं क्या लोगों का खुद का कोई दोष नहीं जो विकास के मुद्दों को न देखकर सिर्फ धर्म और जाति के नाम पर वोट देते रहे। और जनता के सेवक जो चुनाव के दौरान प्रत्येक घर तक पहुंचने की कोशिश करते हैं, चुनाव जीतने के बाद पांच साल तक और पांच ही क्या जिंदगी भर मोटा वेतन और पेंशन, भत्ते प्राप्त कर मौज की ज़िन्दगी गुजारते हैं ये देखने की जहमत तक नहीं उठाते कि उनके क्षेत्र में लोगों की समस्याएं क्या हैं। याद आती हैं उन राजाओं की कहानियां जो भेष बदलकर घूमते थे। जो अपनी प्रजा के दुख को अपना दुख समझते थे। आज जब देश में त्राहि त्राहि मची हुई है, निर्धन और मध्यम वर्ग के माथे पर चिंता की लकीरें हैं तमाम राजनैतिक पार्टियाँ इसे भी एक अवसर के रूप में देख रही हैं। देखें लेकिन इन गरीबों के बारे में सोचना होगा। इन्हें गले लगाना होगा। स्थानीय लोगों को काम मिले इसके लिए प्रत्येक स्तर पर दबाव बनाना होगा। सिर्फ सरकारी दफ्तरों में बैठे ,सरकारी वेतन ले रहे लोग और धनी वर्ग ही प्रजा नहीं है प्रजा वो भी है जिसका किसी सरकारी सहायता वाले दफ्तर में नाम नहीं किन्तु चुनाव के समय बड़ी आस से तुम्हें वोट देते हैं। # फुरकान शाह, प्रबन्धक, शाहजहाँ पब्लिक स्कूल याकूबपुर अमरोहा यूपी 

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