01 मार्च, 1935 को जामिया के सबसे छोटे छात्र अब्दुल अज़ीज़ के हाथों ओखला में जामिया मिल्लिया इस्लामिया की पहली बिल्डिंग की नींव रखी गई. जामिया के सबसे छोटे बच्चे के हाथों नींव रखवाने का ये आईडिया डॉ. ज़ाकिर हुसैन का था. ज़ाकिर हुसैन साहब का ये आईडिया गांधी जी को ख़ूब पसंद आया. इस संबंध में गांधी ने ज़ाकिर हुसैन को एक पत्र लिखा. प्रेस को भी अपना बयान जारी किया और कहा कि ‘यह एक बहुत श्रेष्ठ विचार है कि जामिया की बुनियाद उसके सबसे छोटे बच्चे द्वारा रखी जाए. इस कल्पना की मौलिकता पर मेरी बधाई. मैं जानता हूं कि जामिया का भविष्य उज्जवल है. मैं आशा करता हूं कि इसके द्वारा हिन्दू-मुस्लिम एकता का बीज एक शानदार वृक्ष के रूप में उगेगा. इसलिए मैं इस साहसिक प्रयास की हर सफलता के लिए कामना करता हूं…’
डॉ. ज़ाकिर हुसैन (8 फरवरी, 1897-3 मई, 1969) 1926 से लेकर 1948 तक जामिया के वाइस चांसलर रहे. 1963 में जामिया के चांसलर बने, बता दें कि जामिया की ‘इस इमारत के चीफ़ आर्किटेक्ट कार्ल हेंज थे. कार्ल तुर्की के एक प्रिंस अब्दुल करीम के साथ हैदराबाद पहुंचे थे. डॉ. ज़ाकिर हुसैन और कार्ल हेंज जल्द ही जर्मन भाषा के अपने सामान्य ज्ञान के कारण दोस्त बन गए. हेंज ने स्वेच्छा से बिना किसी शुल्क के जामिया के लिए इमारतों को डिजाइन किया. कार्ल हेंज के डिजाइनों को व्यावहारिक रूप मिस्त्री अब्दुल्ला ने दिया. इंजीनियर ख़्वाजा लतीफ़ हसन पानीपति ने भी कभी-कभी निर्माण कार्य की देख-रेख के लिए स्वेच्छा से काम किया था.’
डॉ. ज़ाकिर हुसैन आज भी जामिया मिल्लिया इस्लामिया से जुड़े लोगों के लिए एक प्रेरणा-स्त्रोत हैं. पिछले दिनों जामिया मिल्लिया इस्लामिया में जामिया से पढ़े अफ़रोज़ आलम साहिल की किताब ‘जामिया और गांधी’ का कवर पेज़ रिलीज़ किया गया. ये रिलीज़ जामिया के ‘मुशीर फ़ातिमा नर्सरी स्कूल’ के नर्सरी क्लास की छात्रा नबीहा जहांगीर और छात्र ख़ुर्रम साक़िब के हाथों हुआ. ये दोनों बच्चे कश्मीर के रहने वाले हैं. जब इस किताब के लेखक अफ़रोज़ आलम साहिल से बच्चों द्वारा अपने किताब का कवर रिलीज़ कराने के संबंध में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि ये प्रेरणा उन्होंने डॉ. ज़ाकिर हुसैन साहब से ली है.
साहिल पिछले कई सालों से इस किताब को लेकर रिसर्च कर रहे थे. ये एक रिसर्च आधारित किताब है. उम्मीद है कि जामिया के फ़ाउंडेशन डे पर ये किताब रिलीज़ जाएगी. ये किताब ख़िलाफ़त आन्दोलन के ‘सरफ़िरों’ व जामिया में ख़ेमाज़न होने वाले उन तमाम ‘दीवानों’ को समर्पित है, जिनके दयार से न जाने अब तक कितने छात्र पढ़कर निकल चुके हैं… अफ़रोज़ साहिल कहते हैं, ‘इंसानों की तरह इदारों की भी उम्र होती है. जामिया ने अपनी ज़िन्दगी के सौ साल पूरे कर लिए हैं. मैं ख़ुश हूं कि मुझे मौक़ा मिला कि सौ साल पूरा होने पर जामिया के असल इतिहास व मक़सद को अपनी पीढ़ी के नौजवानों तक पहुंचा दूं. यक़ीनन मेरे बाद की नस्लें भी इस किताब से फ़ायदा हासिल करेंगी. उम्मीद करता हूं कि इस देश में गांधी और जामिया दोनों के ही इतिहास में रूचि रखने वाले लोगों के लिए ये किताब वरदान साबित होगी.’
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