भारत में पुलिस में काम करना आसान काम नहीं है. ख़ास तौर पर जब कोई निचले ओहदों पर काम कर रहा हो.यहाँ बात भारतीय पुलिस सेवा यानी 'आईपीएस' अधिकारियों की नहीं बल्कि उनके नीचे काम करने वाले आम पुलिसकर्मियों की हो रही है जिनकी ड्यूटी का न वक़्त निर्धारित है साप्ताहिक छुट्टी. ये बात 'स्टेटस ऑफ़ पोलिसिंग इन इंडिया 2019' नामक रिपोर्ट में सामने आई है जिसे लोकनीति, कॉमन कॉज और 'सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज' यानी सीएसडीएस ने गहन सर्वेक्षण के बाद तैयार किया है. सर्वेक्षण में पाया गया है कि कई अपराध सिर्फ़ इसलिए दर्ज नहीं हो रहे हैं क्योंकि पुलिस के पास जाते हुए लोग डरते हैं. अगर नाबालिग़ बच्चे किसी अपराध में पकड़े जाते हैं तो उनके साथ वयस्क अपराधियों जैसा सुलूक किया जाता है. उसी तरह महिलाओं के प्रति पुलिसवालों में संवेदनशीलता की कमी के चलते मामले दर्ज नहीं हो पा रहे हैं. इस रिपोर्ट में कई ऐसे पहलुओं पर भी चर्चा की गई है जिनकी वजह से पुलिसकर्मियों को मानसिक और शारीरिक तनाव झेलना पड़ रहा है. रिपोर्ट में कहा गया है कि पुलिसकर्मियों की ड्यूटी का समय निर्धारित नहीं होने की वजह से उन पर हमेशा तनाव रहता है. रिपोर्ट में पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय से संबंध रखने वाले पुलिसकर्मियों के बारे में कहा गया है कि उन्हें अपने ही सहकर्मियों से भेदभाव का सामना करना पड़ता है.
सिर्फ़ 6 प्रतिशत पुलिसवाले ऐसे हैं जिन्हे कार्यकाल के दौरान कोई प्रशिक्षण मिला है. बाक़ी के पुलिस वाले ऐसे हैं जिन्होंने सिर्फ़ भर्ती के वक़्त ही प्रशिक्षण मिला था. वहीं वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को समय-समय पर प्रशिक्षण दिया जाता है. देश के 22 राज्यों में 70 थाने ऐसे हैं जहाँ वायरलेस उपलब्ध नहीं हैं जबकि 224 ऐसे हैं जहाँ फ़ोन की व्यवस्था भी नहीं है. 24 ऐसे हैं जहाँ न फ़ोन है न वायरलेस. लगभग 240 थाने ऐसे भी हैं जहाँ कोई वाहन उपलब्ध नहीं है. चूंकि 'क़ानून और व्यवस्था' राज्य सरकारों की ज़िम्मेदारी है इसलिए हर राज्य में पुलिसकर्मियों के सामने अलग-अलग तरह की समस्याएं आती हैं. और सबसे महत्वपूर्ण बात जो रिपोर्ट में दर्ज की गई है वो है कि ये पुलिसकर्मी इसके ख़िलाफ़ आवाज़ भी नहीं उठा सकते हैं. वर्ष 2015 के मई महीने में बिहार की गृह रक्षा वाहिनी के 53 हज़ार कर्मियों ने अनिश्चितकालीन हड़ताल की थी. वहीं साल 2016 के जून महीने में कर्नाटक के पुलिसकर्मियों ने कम वेतन, ड्यूटी का समय तय ना होने, साप्ताहिक छुट्टी नहीं मिलने को लेकर आंदोलन की धमकी दी थी.
सर्वेक्षण के आधार पर तैयार की गई इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इस तनाव का असर पुलिसकर्मियों के रवैये पर भी पड़ रहा है. दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में इस रिपोर्ट को औपचारिक रूप से जारी किया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस चेलमेश्वर के अलावा उत्तर प्रदेश पुलिस और केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के पूर्व महानिदेशक प्रकाश सिंह भी मौजूद थे. इसके अलावा सामजिक कार्यकर्ता वृंदा ग्रोवर और अरुणा रॉय भी थीं. जब-जब पुलिस बल में सुधार की बात आती है तो प्रकाश सिंह का नाम आता है, जिन्होंने इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था. वर्ष 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने सुधारों को लेकर एक अहम फ़ैसला सुनाया था. बीबीसी से बात करते हुए प्रकाश सिंह का कहना था कि भारत में पुलिस बल की जो संरचना है या फिर जो अनुसंधान का तरीक़ा है वो औपनिवेशिक है.
हलांकि वो कहते हैं कि सुधारों की बात नई नहीं है. वर्ष 1902 में लार्ड कर्ज़न ने भी सुधारों की पेशकश की थी. उनका मानना है कि क़ानून के पालन की बजाय पुलिसकर्मी हुक्मरानों के आदेश का पालन करने में ही अपनी बेहतरी समझते हैं. 'सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज' यानी सीएसडीएस और 'कॉमन कॉज' नमक ग़ैर सरकारी संस्था की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि महाराष्ट्र ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ पुलिसकर्मियों को साप्ताहिक अवकाश मिल रहा है. ओडिशा और छत्तीसगढ़ के 90 प्रतिशत पुलिसकर्मी ऐसे हैं जिन्होंने शोधकर्ताओं को बताया कि उन्हें एक दिन भी साप्ताहिक अवकाश नहीं मिलता और वो लगातार काम करने को मजबूर हैं.
काम करने के घंटों की अगर बात की जाए तो पूरे भारत में औसतन एक पुलिसकर्मी एक साथ 14 घंटे काम करने को मजबूर है जबकि पंजाब और ओडिशा में पुलिसकर्मियों ने बताया है कि वो एक साथ 17 से 18 घंटों तक काम कर रहे हैं. इसमें अपने वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के लिए घरेलू काम करने की भी शिकायत शोधकर्ताओं को मिली है. ये तो बात मानसिक तनाव और ड्यूटी के घंटों के निर्धारण नहीं होने की बात, जहाँ तक अपराध अनुसंधान और प्रशिक्षण का मामला है तो भारत इसमें भी काफ़ी पीछे है. रिपोर्ट में राजस्थान, ओडिशा और उत्तराखंड को 'वर्स्ट परफ़ॉर्मिंग स्टेट्स' के रूप में चिह्नित किया गया है.पश्चिम बंगाल, गुजरात और पंजाब पूरे देश में सबसे बेहतर हैं. चाहे वो बेहतर संरचना हो या फिर बेहतर संसाधन और आधुनिकीकरण की बात हो. प्रकाश सिंह ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया मगर सरकार ने समय-समय पर पुलिस सुधारों को लेकर कमिटियां और आयोगों का गठन किया था. इसमें राष्ट्रीय पुलिस आयोग, राज्य पुलिस आयोग के अलावा पुलिस प्रशिक्षण पर गोरे कमिटी, रिबेरो कमेटी पद्मनाभैया कमिटी और मालीमठ कमिटी शामिल हैं. लेकिन इन सब के बावजूद जो सुधार पुलिस के अमल में दिखने चाहिए थे वो नहीं दिख पाए. जस्टिस चेलमेश्वर कहते हैं कि 'एक पुलिसकर्मी को कई काम करने पड़ते हैं. जैसे किसी विशिष्ठ व्यक्ति के सुरक्षा ही देखना, प्रदर्शनों से भी निपटना, हिंसा से निपटना और तब जाकर अनुसंधान भी उसके ज़िम्मे आता है.'
अनुसंधानकर्ता पुलिस अधिकारियों को प्रशिक्षण के अभाव में पता ही नहीं है कि अदालत में मामला कैसे पक्ष किया जाए या प्राथमिकी किस तरह दर्ज की जाए. वैसे रिपोर्ट में इस बात पर भी चिंता व्यक्त की गई है कि अपराध के बदलते तरीक़ों से निपटने के लिए भारत उतना सक्षम है या नहीं जैसे आर्थिक अपराध, डेटा की चोरी, साइबर अपराध की भी चर्चा की गई है. पुलिस विभाग को मुहैया कराए गए संसाधन हों या पुलिस आधुनिकीकरण के मुद्दे पर भी भारत काफ़ी पीछे ही है. लेकिन सबसे बड़ी चुनौती है पुलिस बल की कमी. कई राज्य ऐसे हैं जहाँ पुलिस बल में रिक्तियां तो हैं मगर उन पर बहाली नहीं हुई है. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, एक लाख की जनसंख्या पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए जबकि भारत में इसका अनुपात सिर्फ 192 प्रति एक लाख व्यक्ति है. रिपोर्ट में पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो की 2007 से लेकर 2016 तक के डेटा का भी उल्लेख किया गया है. नगालैंड को छोड़कर बाक़ी के सभी राज्यों में पुलिस बल की भारी कमी है, जिसमें उत्तर प्रदेश का हाल सबसे ख़राब है. रिपोर्ट में उन पदों का भी ज़िक्र किया गया है जो पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षित किए गए हैं और उन पर बहालियां नहीं हो रहीं हैं. उसी तरह अल्पसंख्यकों का अनुपात भी पुलिस बल में काफ़ी कम है 'स्टेटस ऑफ़ पोलिसिंग इन इंडिया 2019' यानी 'एसआईपीआर' की रिपोर्ट के निचोड़ में उल्लेख किया गया है कि आम नागरिकों के मन में पुलिस का ख़ौफ़ सबसे ज़्यादा है. बीबीसी संवाददाता, नई दिल्ली

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