Tuesday, March 10, 2020

कविताः होली

भारत… यहां तो हर दिन होली है!
आतंकी खेलते हैं बेगुनाहों के खून से
तथाकथित गौ-रक्षक मुसलमानों के खून से
और ‘देशभक्त’ व ‘दंगाई’ अपनों का ही
लाल रंग बेरंग पानी में बहा देते हैं!

कोई सुबह ऐसी नहीं…
जब ख़बरों में छाया नोटों का रंग
या दहेज़ के सोने का पीलापन
किसी अभागिन की मांग के लाल रंग को
लाल लहू में तब्दील कर न बहता दिखे!

कोई खुद को केसरिया रंग में रंग
तिरंगे पर उन्माद का दाग़ लगा रहा
तो किसी की ज़िंदगी इस क़दर रंगीन है
कि दूसरे रंग की गुंजाइश ही नहीं!

महंगाई की पिचकारी से
कब के धुल चुके हैं…
ग़रीबों की ज़िन्दगी के सारे रंग !

इन बेचारों को तो होली के नज़राने के तौर पर
पीली-गुलाबी रंग की दाल भी नसीब नहीं…

किसी तरह रोज़ के चार दाने जुटा भी लें
तो पकाने को क़ीमती लाल रंग का सिलेंडर कहां से लायें?

किसानों की ज़िन्दगी भी अब बद से बदरंग हो चुकी
सूखे के क़हर ने सोख लिया है खेतों का हरा-पीला रंग

उन किसानों के लिये बाकी है सिर्फ अंधेरे का काला रंग…

वो कोई रंग चढ़ाए क्या कोई रंग छुटाए क्या!

एक बेबस सा सवाल ये भी कि वो घर लाए क्या?
रोटी-दाल… या फिर अबीर गुलाल?

कितनी अजीब दुनिया है… रंगीन सपने दिखा
नेता बदल लेते हैं अपना रंग!

और ग़रीब की क़िस्मत को
उम्र भर जोड़ना होता है
बदले हुए रंगो का हिसाब

जल्द ही छूट जाते हैं होली के रंग
बस बचे रहते हैं देश के सीने पर
दाग़ की तरह चिपके
आम सपनों की गुमनाम मौत के स्याह रंग!


@अफरोज आलम साहिल

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