Monday, July 1, 2019

ग़ज़ल: माधुरी मिश्रा, वाराणसी

आंख में अपनी तुम कुछ तो शरम रहने दो।
तुम भी इंसान हो इसका तो भरम   रहने दो।।

तोड़ दो दुनिया की तुम चाहो अगर रस्मो रिवाज।
अपनी तहज़ीब का तुम कुछ तो वहम रहने दो।।

डर नहीं है अगर जो तुमको खुदा माफ करे।
अपनी अच्छाइ का खुद पे भी करम रहने दो।।

भर न जाए घड़ा ये पाप का जो तुमने किया।
और ज्यादा न करो तुम ये सितम रहने दो।।

होश क्यों खोते हो तुम होके गरम इतना भी।
अपनी तबियत को भी तुम और नरम रहने दो।।

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